योग, योगासन और आहार


शरीर के पांच कोष

मनुष्य का शरीर स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य से बना है, और शरीर में प्राण नामक एक विशेष शक्ति कार्य करती है। इसमें पांच कोष है। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष।

शरीर के सारे व्यापार अन्न पर निर्भर है। शरीर को स्वस्थ तथा नियम में रखने के लिए अन्न की आवश्यकता है। यदि मनुष्य को किसी प्रकार का भोजन ना दिया जाए, तो उसकी इंद्रियां, मन तथा बुद्धि 15 दिनों में ही निस्तेज हो जाएगी।

भोजन का प्रमाण

हालांकि शरीर की सारी क्रियाएं अन्न पर अवलंबित है, लेकिन भोजन भी नियमित प्रमाण में होना चाहिए।

यदि सात्विक भोजन भी आवश्यकता से अधिक किया जाए, तो जठराग्नि उसे पचा नहीं सकेगी, और रोग होने की आशंका रहेगी। शरीर एवं मन अस्वस्थ होता जाएगा और धीरे-धीरे शरीर बीमारियों का घर बनता जाएगा।

इसलिए कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि
“युक्ताहार विहारस्य योगो भवति दु:खहा”
अर्थात आहार और शरीर की चेष्टाएँ युक्त होनी चाहिए, तभी दुख का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है।

यहां युक्त शब्द का अर्थ क्या है? यहां युक्त से मतलब थोड़े से नहीं है, इसका अर्थ है ना थोड़ा ना ज्यादा अर्थात आवश्यकता के अनुसार।

शास्त्रों के अनुसार युक्त आहार से तात्पर्य यह है कि, मनुष्य अपने पेट का आधा भाग खाद्य पदार्थों से भरे, एक चौथाई जल से भरे, और बाकी का चौथाई भाग वायु संचार के लिए खाली रखें।

इस आधे और चौथाई का अनुमान करना अधिकतर लोगों के लिए कठिन होता है। इसलिए भोजन के समय इन लोगों को केवल इतना ध्यान रखना चाहिए कि पेट में भार ना मालूम दे।

आलस्य, जम्हाई आदि ना आवे, काम करने में उत्साह रहे, और भोजन कर चुकने पर भी शरीर हल्का मालूम दे। इस प्रकार भोजन करना चाहिए।

जिस भोजन के बाद नींद आने लगे, आलस्य और जम्हाई आने लगे, काम करने को मन ना चाहे, शरीर भारी मालूम हो, श्वास प्रश्वास में कष्ट प्रतीत हो, उस आहार या भोजन को अयुक्त जानना चाहिए।

जैसे दीपक जलने के लिए तेल और बत्ती दोनों की जरूरत है। परंतु यदि तेल दीपक में इतना अधिक डाला जाए की, बत्ती की ज्योति तक पहुंच जाए, तो दीपक बुझ जाएगा। और तेल यदि इतना कम डाला जाए की बत्ती में होकर ना चढ़ सके अथवा बत्ती ही ऊपर तक ना भीग सके तो दीपक जल ना सकेगा।

यदि नियमित सात्विक आहार किया जाए तो शरीर स्वस्थ और निरोगी रहेगा और मन भी शांत रहेगा।

पदार्थों के तीन गुण

सभी प्रकार के पदार्थों में तीन गुण – सत्व, रज और तम भिन्न-भिन्न प्रमाण में रहते हैं। जिन पदार्थों में इन दोनों में से जिस 2 का प्राधान्य होता है, वे पदार्थ उसी के अनुसार क्रमशः सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक कहलाते हैं।

मनुष्य का भोजन जिस गुण के पदार्थों का होगा, वही गुण उसके शारीरिक तथा मानसिक व्यापार में दृष्टिगत होंगे। क्योंकि मनुष्य जो भोजन खाता है, उसी से शरीर में रस, रक्त, मांस, अस्थि, वीर्य आदि पदार्थ बनते हैं। और उसी के सूक्ष्म परमाणुओंसे प्राण से लेकर मन तक का सारा व्यापार चलता है।

यह प्राण ही क्रियात्मक शरीर का जन्मदाता है और यह प्राण ही भोक्ता है

अतः तामसिक भोजन से प्राण में तामसिक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इंद्रियों की चेष्टा तामसिक होने के कारण, तथा मन में तामसिक संस्कारों द्वारा संकल्प विकल्प के कारण, शारीरिक क्रियाएं भी का तामसिक हो जाती है। और मनुष्य में चोरी, खून, व्यभिचार और अन्य अधर्म युक्त कार्य करने की प्रवृत्ति आ जाती है।

इसके विपरीत सात्विक भोजन से, मन और बुद्धि शुद्ध होते हैं, और विचार तथा क्रियात्मक शरीर में सात्विक भाव का की जागृति होती है।

शास्त्रों का भी यही अभिप्राय है – सत्वात संजायते ज्ञानम। भगवत गीता के वचनों में सात्विक आहार से सात्विक मन और बुद्धि बनती है, ऐसा निर्देश किया गया है।